तो क्या बदलने वाला है Startups का Valuation निकालने का तरीका? जानिए अभी कैसे तय होता है कौन सा स्टार्टअप है कितना बड़ा
हाल ही में भारतीय उद्योग परिसंघ (CII) ने स्टार्टअप्स के लिए एक कॉरपोरेट गवर्नेंस चार्टर जारी किया है. इसमें कहा गया है कि स्टार्टअप्स (Startup) को शॉर्ट टर्म के बजाय लॉन्ग टर्म को ध्यान में रखते हुए वैल्युएशन (Valuation) तय करना चाहिए.
हाल ही में भारतीय उद्योग परिसंघ (CII) ने स्टार्टअप्स के लिए एक कॉरपोरेट गवर्नेंस चार्टर जारी किया है. इसमें कहा गया है कि स्टार्टअप्स (Startup) को शॉर्ट टर्म के बजाय लॉन्ग टर्म को ध्यान में रखते हुए वैल्युएशन (Valuation) तय करना चाहिए. सीआईआई ने कहा है कि जहां तक हो सके, वहां तक स्टार्टअप्स को अपना वैल्युएशन यानी मूल्यांकन उचित रखना चाहिए. चार्टर में यह भी कहा गया है कि स्टार्टअप कंपनियों को फाउंडर्स की संपत्ति से अलग संगठन की संपत्ति के साथ एक अलग कानूनी इकाई रखनी चाहिए.
CII ने कहा है कि स्टार्टअप के लिए चार्टर का मकसद उन्हें जिम्मेदार कॉरपोरेट नागरिक बनाना है. साथ ही यह भी कहा है कि कारोबारी इकाइयों की जरूरतों को उसके संस्थापकों की जरूरतों से अलग किया जा सकता है, लेकिन संस्थापकों, प्रवर्तकों, शुरुआती निवेशकों के लक्ष्यों और जरूरतों को दीर्घकालिक लक्ष्यों के साथ भी जोड़ा जा सकता है. सीआईआई का चार्टर आने के बाद अब कयास लगाए जाने लगे हैं कि स्टार्टअप के वैल्युएशन के तरीके में कुछ बदलाव किया जाए सकता है.
कैसे तय होता है स्टार्टअप का वैल्युएशन?
स्टार्टअप में वैल्युएशन सिस्टम एक आम बिजनेस के वैल्युएशन से काफी अलग होता है. आम बिजनेस में वैल्युएशन निकालने के लिए कंपनी का रेवेन्यू, उसके असेट आदि को देखा जाता है, जबकि स्टार्टअप में ऐसा नहीं होता. स्टार्टअप में एक तरह वैल्युएशन का खेल मोल-भाव यानी नेगोसिएशन के हिसाब से चलता है.
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मान लीजिए एक स्टार्टअप शुरू होता है जो कुछ लाख रुपये लगाता है और फिर किसी को अपना आइडिया सुनाता है. निवेशक को आइडिया पसंद आता है और उसे यह बिजनेस करोड़ों का लगता है. मान लीजिए उस निवेशक ने इस बिजनेस को एक करोड़ का वैल्युएशन दे दिया. इसके कुछ समय बाद जब फाउंडर किसी दूसरे निवेशक के पास जाता है और अगर वह निवेशक उसी बिजनेस को 10 करोड़ रुपये के वैल्युएशन पर कुछ हिस्सेदारी लेकर निवेश दे दे, तो अब बिजनेस की वैल्यू बैठे-बिठाए 10 करोड़ हो जाती है. इसी तरह ये प्रक्रिया चलती जाती है और जितनी बार फंड रेज किया जाता है, उनमें से अधिकतर बार वैल्युएशन बढ़ती जाती है.
वैसे वैल्युएशन देते वक्त तमाम निवेशक पूरी कैलकुलेशन करते हैं. वह ये भी देखते हैं कि कंपनी का रेवेन्यू क्या है, मुनाफा है या नहीं, कर्ज कितना है, टीम कैसी है और भी बहुत कुछ देखते हैं. लेकिन इन सब के बावजूद उनका वैल्युएशन देने का तरीका नेगोसिएशन ही रहता है. अगर आपने शार्क टैंक देखा होगा तो आपको पता ही होगा कि उसमें कैसे तमाम फाउंडर अपने स्टार्टअप के लिए एक वैल्युएशन तय कर के पैसे मांगते थे. इस तरह देखा जाए तो आपको पता चलेगा कि निवेशकों की असली कमाई कम वैल्युएशन पर हिस्सेदारी खरीदकर उसे ऊंचे वैल्युएशन पर बेचने से होती है.
अनाप-शनाप वैल्युएशन ने बढ़ाईं दिक्कतें
कुछ ही सालों में एक स्टार्टअप यूनिकॉर्न बन जाता है, यह सब वैल्युएशन निकालने के इसी तरीके के चलते होता है. वहीं यूनिकॉर्न बनने की रेस में तमाम स्टार्टअप अपने बिजनेस मॉडल और प्रॉफिटेबिलिटी पर फोकस करने के बजाय वैल्युएशन के चक्कर में पड़ जाते हैं. इसी के चलते अक्सर ये सुनने को मिलता है कि कुछ स्टार्टअप्स की जितनी कमाई भी नहीं है, उससे ज्यादा तो उनका नुकसान हो रहा है, मुनाफा तो बहुत दूर की बात है. अनाप-शनाप वैल्युएशन का ताजा उदाहरण बायजूज़ है, जो महज 2 सालों में 22 बिलियन डॉलर से गिरकर 1 बिलियन डॉलर से भी कम का रह गया है यानी यूनिकॉर्न की रेस से ही बाहर हो गया है.
01:03 PM IST