खेती में छोटा सा निवेश, आज कर रहे हैं लाखों की कमाई
अविनाश ऐसे किसान हैं जो खेती में लीक से हटकर प्रयोग कर रह हैं और कम लागत में ज्यादा मुनाफा ले रहे हैं.
गोरखपुर के अविनाश कुमार औषधीय खेती से करके किसानों के लिए मिसाल बने हैं.
गोरखपुर के अविनाश कुमार औषधीय खेती से करके किसानों के लिए मिसाल बने हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विजन है कि 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने का. लेकिन भारत में मौसम आधारित खेती और लगातार घटती जोत के कारण किसानों के लिए खेती घाटे का सौदा साबित हो रही है, खासकर परंपरागत तरीके से खेती में तो लगातार खतरे मंडराते रहते हैं. जैसे कभी मौसम की मार तो कभी बाजार की मार. ऐसे में जहां खेती से लगात भी निकालना मुश्किल होता हो, वहां उससे मुनाफे की बात सोचना भी बेमानी हो जाता है. लेकिन प्रगतिशील किसान इसी तरह की चुनौतियों के सामने कामयाबी की इबारत लिख रहे हैं. उनके लिए खेती घाटे का नहीं बल्कि मुनाफे और उसके साथ शौहरत का भी साधन बन रही है.
एक ऐसे ही एक नौजवान किसान हैं गोरखपुर के अविनाश कुमार. अविनाश ऐसे किसान हैं जो खेतों में लीक से हटकर प्रयोग कर रह हैं और कम लागत में ज्यादा मुनाफा ले रहे हैं. अविनाश औषधीय पौधों की खेती करते हैं. खासबात ये है कि उन्हें यह खेती इतनी रास आई कि उन्होंने अपने साथ अन्य किसानों को भी जोड़ लिया है और इन किसानों की उपज अब इंटरनेशनल मार्केट में भी जगह बनाने जा रही है.
अविनाश कुमार मूलत: बिहार के मधुबनी जिले के हैं, लेकिन पिता रेलवे थे और इस कारण उनका लालन-पोषण तथा शिक्षा गोरखपुर में ही पूरी हुई है. अविनाश ने एमए करने के साथ-साथ पत्रकारिता में डिप्लोमा भी लिया है, लेकिन कुछ अलग करने की चाह ने उन्हें खेती-किसानी की तरफ मोड़ दिया.
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कृषि वैज्ञानिकों का सहयोग
अविनाश बताते हैं कि मधुबनी से करीब 30 किलोमीटर दूर बाबूबरही प्रखंड में उनका गांव है छौरही. वहां उनकी पैतृक जमीन है. 2013 में उन्होंने अपनी इस जमीन पर अर्जुन के पौधे लगाए. फिलहाल 5 हजार पौधे पेड़ बनकर लहलहा रहे हैं. अविनाश बताते हैं कि जब उन्होंने अर्जुन के पेड़ लगाए तब उन्हें उनके बारे में कुछ खास जानकारी नहीं थी. किसी ने बताया कि अर्जुन एक बहुत ही उपयोगी औषधी होती है, तब उनकी रुचि औषधीय पौधों की खेती की तरफ मुड़ गई.
खेती करने से पहले अविनाश ने देश के कई कृषि विश्वविद्यालयों का भ्रमण किया और वहां औषधीय पौधों की खेती पर हो रहे कामों का अध्ययन किया. उन्होंने बताया कि बेंगलुरु स्थित इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ हॉर्टिकल्चर रिसर्च (आईआईएचआर) के वैज्ञानिकों ने उनको कई औषधीय पौधों की खेती के बारे में विस्तार से बताया. वह वहां तैनात डॉ. हिमा बिंदु और सिकंदराबाद के डॉ. आशीष कुमार को याद करते हुए बताते हैं कि इन वैज्ञानिकों ने उन्हें कौंच की खेती के बारे में बताया.
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पहली फसल से ही कमाई
अविनाश ने अपनी किसानी की शुरुआत 2 एकड़ जमीन में ब्राह्मी की खेती करके की. वह बताते हैं कि ब्राह्मी हिमालय के तराई की जड़ी-बूटी है, इसलिए मधुबनी का वातावरण इसकी खेती के लिए बहुत ही मुफीद है. उन्होंने बताया कि 2 एकड़ में ब्राह्मी लगाने में कुल लागत 3000 रुपये आई. खेत में ब्राह्मी लगाने के बाद उन्होंने इसके बाजार की खोजबीन शुरू कर दी.
अविनाश बताते हैं कि ब्राह्मी एक ऐसी फसल है जिसे कम देखरेख की जरूरत होती है. 4 महीने बाद उनके खेत में जब फसल तैयार हुई तो 7 क्विंटल ब्राह्मी का उत्पादन हुआ. और उन्होंने इसे 3000 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से बेच दिया. इस तरह चार महीने के अंदर उन्हें 18 हजार रुपये की आमदनी हुई. इतनी आमदनी उन्हें परंपरागत खेती से तो कतई नहीं हो सकती.
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इस तरह अविनाश को एक नई राह मिल गई और उन्होंने अपने खेतों में तुलसी, भूमि आंवला, कौंच, ब्राह्मी, बच और शालपर्णी की खेती करनी शुरू की. अविनाश को देखते हुए गांव के ही कई और किसान उनसे जुड़ गए और उनके साथ औषधीय पौधों की खेती करने लगे.
खुद तैयार किया बाजार, 2000 किसान जोड़े
अविनाश के सामने समस्या आई कि बाजार में खरीददारों को बड़े पैमाने पर उत्पाद की जरूरत होती है. कम मात्रा में उत्पाद के खरीददार कम ही मिल पाते हैं. इसके लिए उन्होंने गोरखपुर में 2016 में शबला सेवा संस्थान की स्थापना की. इस संस्थान से औषधीय पौधों की खेती करने वाले किसानों को जोड़ा. अविनाश बताते हैं कि आज उनके साथ प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्षतौर पर 2,000 किसान जुड़े हुए हैं. इस संस्थान के तहत वह किसानों को औषधीय पौधों की खेती के प्रति किसानों को जागरुक करते हैं, उन्हें ट्रेनिंग देते हैं और जब उनका उत्पाद तैयार हो जाता है तो उनको बाजार मुहैया कराते हैं.
शबल सेवा संस्थान के माध्यम से वह खुद किसानों से उनके उत्पाद खरीदते हैं और आगे दवा कंपनियों को बेचते हैं. अविनाश बताते हैं कि बीते साल उन्होंने करीब 20 लाख रुपये औषधीय उत्पाद विभिन्न कंपनियों को बेचे थे.
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इंटरनेशनल मार्केट
अविनाश का अगला कदम अपने उत्पाद को अंतरराष्ट्रीय बाजार में पहुंचाना है. इसके लिए उन्होंने आयात-निर्यात करने की सभी संबंधित कागजी कार्रवाई पूरी कर ली है. विश्व स्वास्थ्य संगठन समेत अन्य संगठनों से भी अपने उत्पादों के निर्यात की मंजूरी ले ली है. अविनाश बताते हैं ऑस्ट्रेलिया से कुछ खरीददार उनके यहां आ रहे हैं और वे उनके साथ अपने उत्पाद का सौदा करेंगे. उन्होंने बताया कि 2019 से उनका एक्सपोर्ट का काम शुरू हो जाएगा.
MSP नहीं होने से परेशानी
अविनाश बताते हैं कि अभी तक सफर में उन्होंने बिना किसी सरकारी मदद के यह मुकाम हासिल किया है. उन्होंने बताया कि जिस तरह से गेहूं, चावल का सरकार न्यूनतम समर्थन (एमएसपी) मूल्य तय करती है, उसी तरह औषधीय पौधों का भी होना चाहिए. क्योंकि एमएसपी नहीं होने से खरीददार मनमाने दाम पर उनका उत्पाद खरीदते हैं. उन्होंने बताया कि इन दिनों एलोवेरा किसानों की स्थिति बहुत खराब है. क्योंकि किसान के पास अपने उत्पाद को स्टोर करके रखने का कोई साधन नहीं होता है.
प्रोसेसिंग से होगा समाधान
इस समस्या के लिए अविनाश बताते हैं कि वह खुद का एक प्रोसेसिंग यूनिट लगाने का प्लान कर रहे हैं, ताकि किसानों को उनके उत्पाद के लिए खरीददारों के भरोसे नहीं रहना पड़े. उन्होंने बताया कि आज उनके साथ बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के किसान जुड़े हुए हैं. अविनाश खुद जगह-जगह भ्रमण करके इलाकों के मुताबिक औषधीय पौधों की खेती की संभावना तलाश रहे हैं. उन्होंने बताया कि हाल ही में उन्होंने राजस्थान के भरतपुर का दौरा किया. भरतपुर की मिट्टी में केवल सरसों, थोड़ा बहुत गेहूं और बाजरा होता है. अविनाश बताते हैं बाजरे का दाम बहुत कम मिलता है. अगर उसके स्थान पर भूमि आंवले की खेती की जाए तो किसान को अच्छा लाभ मिल सकता है.
अविनाश बताते हैं कि वह अपने साथ उन किसानों को जोड़ रहे हैं जिनकी खेती से आमदनी शून्य है. जो अभी तक केवल अपने खाने लायक ही अनाज पैदा कर पाते हैं. ऐेसे किसानों के लिए खेती को फायदे का सौदा बनाना उनका मकसद है.
06:41 PM IST