AIIMS की रिपोर्ट में चौंकाने वाला खुलासा हुआ है. रिपोर्ट के मुताबिक, देश भर के आईसीयू में भर्ती गंभीर इंफेक्शन के शिकार कई मरीजों पर कोई भी एंटीबायोटिक दवा काम नहीं कर रही है. ऐसे मरीजों के बेमौत मारे जाने का खतरा है. एंटीबायोटिक दवाओं के बेअसर होते चले जाने का हाल ये हो गया है कि सबसे लेटेस्ट दवा जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन ने रिजर्व कैटेगरी में रखा है वो भी अब कई बार काम नहीं कर रही. रिजर्व कैटेगरी की दवा का मतलब होता है कि इसे चुनिंदा मौकों पर ही इस्तेमाल किया जाए. पूरे देश में बन रहा इंफेक्शन कंट्रोल नेटवर्क   देश के तमाम अस्पतालों के साथ मिलकर एम्स ने एक नेटवर्क तैयार किया है. सबसे असरदार एंटीबायोटिक भी केवल 20 परसेंट में ही कारगर पाए जा रहे हैं. यानी बाकी बचे 60 से 80 परसेंट मरीज खतरे में हैं और उनकी जान जा सकती है. इसकी वजह धड़ल्ले से मरीजों और डॉक्टरों का मनमर्जी से एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल करना है. ऐसे में एक ही तरीका है कि अस्पतालों में इंफेक्शन का स्तर कंट्रोल किया जाए. दिल्ली के एम्स ट्रॉमा सेंटर की इंफेक्शन कंट्रोल पॉलिसी को पूरे देश में लागू करने के लिए डॉक्टर पूर्वा माथुर की निगरानी में सभी अस्पतालों को जोड़ा जा रहा है. डॉ पूर्वा के मुताबिक दक्षिण के राज्यों में उत्तर भारत के मुकाबले इंफेक्शन कम पाया जा रहा है. इसी तरह मोटे तौर पर प्राइवेट अस्पतालों का इंफेक्शन कंट्रोल सरकारी अस्पतालों से बेहतर है. कमजोर इम्यूनिटी वाले मरीजों को ज्यादा खतरा अस्पतालों के आईसीयू में, मरीज को लगाए जाने वाले कैथेटर, कैन्युला और दूसरे डिवाइस में कई बैक्टीरिया और जीवाणु पनपते रहते हैं. ये इंफेक्शन पहले से बीमार और कमजोर इम्यूनिटी वाले मरीजों को और बीमार करने लगते हैं. लंबे समय तक आईसीयू में भर्ती मरीजों को ऐसे इंफेक्शन का खतरा बढ़ जाता है. अब ये इंफेक्शन खून में पहुंच रहे हैं.  खून में पहुंचने का मतलब है कि पूरे शरीर में सेप्सिस होने का खतरा. इस कंडीशन के गंभीर होने पर धीरे-धीरे मरीज के अंग काम करना बंद करने लगते हैं. जिसे मल्टी ऑर्गन फेलियर कहा जाता है. एम्स ट्रामा सेंटर के चीफ डॉ कामरान फारूकी के मुताबिक निमोनिया के मरीज जो लंबे समय तक वेंटिलेटर पर रहते हैं, ऐसे मरीज जिन्हें लंबे समय तक कैन्युला, कैथेटर या यूरिन बैग लगे रहते हैं. उनमें ऐसे खतरनाक इंफेक्शन के पनपने का खतरा बना रहता है.