चुनाव पर चुनाव, रैली पर रैली, बार बार आचार संहिता, वोट बैंक की राजनीति और हर बार की तू-तू मैं-मैं. जी हां, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की यही नियति बन गई है. रह रह कर आते चुनाव न सिर्फ देश के विकास की राह में रोड़ा बन रहे हैं बल्कि राजनीति के लिए नेताओं की गलाकाट प्रतिस्पर्धा में देश का माहौल भी बार-बार खराब हो रहा है. पिछले साल मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान समेत पांच राज्यों के चुनाव हुए, तो उसके ठीक 5 महीने बाद देश में आम चुनावों का वक्त आ गया. 

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आम चुनावों के साथ 4 राज्यों में विधानसभा चुनाव भी हुए. अभी केन्द्र और इन राज्यों में नई सरकार ने काम संभाला ही है तो झारखंड, हरियाणा और महाराष्ट्र में चुनावों का नंबर आ गया है. इस तरह एक चुनाव खत्म हुआ नहीं कि दूसरा सिर पर आ जाता है. विकास के हाइवे पर चुनावों के इसी जाम से मुक्ति के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने यूं तो 2014 में कमर कस ली थी लेकिन इस पर व्यापक चर्चा की कोशिशें अब जाकर तेज हुई हैं. 

प्रधानमंत्री कई मौकों पर कह चुके हैं कि एक राष्ट्र एक चुनाव से देश विकास के पथ पर तेजी से आगे बढ़ेगा. इसी सोच के साथ प्रधानमंत्री ने संसद परिसर में बुधवार को इस मसले पर सर्वदलीय बैठक बुलाई लेकिन सारे दल बैठक में शामिल नहीं हुए. बैठक से कांग्रेस, टीएमसी, टीडीपी, डीएमके और बीएसपी ने दूरी बनाए रखी. 

बैठक का बहिष्कार करने वाले दलों का मानना है कि सरकार की ओर से इस मुद्दे को उठाकर मूल मुद्दों से ध्यान भटकाया जा रहा है. बीएसपी प्रमुख मायावती ने ट्वीट कर कहा कि अगर ईवीएम के मुद्दे पर सर्वदलीय बैठक होती तो वह इसमें जरूर शामिल होतीं.

हालांकि एनडीए से बाहर भी कई दल एक राष्ट्र एक चुनाव के समर्थन में खड़े हैं. इनमें नवीन पटनायक की बीजेडी और वाईएसआर कांग्रेस जैसे दल शामिल हैं. एक देश एक राष्ट्र की परिकल्पना को पीएम मोदी का ड्रीम प्रोजेक्ट भी कहा जा रहा है. पहली सरकार में मोदी ने कई मौकों पर दोहराया कि अलग-अलग चुनाव से विकास थम जाता है. उनका मानना रहा है कि आचार संहिता लागू होने से विकास पर असर होता है.

पहली मोदी सरकार में नीति आयोग ने इस बारे में एक ड्राफ्ट भी तैयार किया था और विधि आयोग के साथ मिलकर इस काम के लिए चुनाव आयोग को नोडल एजेंसी बनाया गया था. नीति आयोग का सुझाव था कि 2024 से एक राष्ट्र एक चुनाव की परिकल्पना साकार हो. यही नहीं संसद की स्थायी समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा था कि एकसाथ चुनाव कराने से खर्च में कमी आएगी. 

मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल में इस मसले पर आमराय नहीं हो पाई और न ही चुनाव आयोग की इसके लिए तैयारियां पूरी थी. इसलिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की बुधवार को बुलाई बैठक बेहद महत्वपूर्ण मानी जारी है. लेकिन विपक्ष के रुख ने ये साफ कर दिया है कि फिलहाल इस मसले पर आमराय नहीं है. हालांकि लेफ्ट पार्टियों और एनसीपी समेत कई विपक्षी दलों ने बैठक में शामिल होकर इस मामले में अपनी राय रखी. लेफ्ट पार्टियों ने पीएम मोदी की इस मुहिम का विरोध किया है.

माना जा रहा है कि विधायिकाओं का कार्यकाल निर्धारित करने के लिए संविधान में संशोधन किए बगैर एक राष्ट्र एक चुनाव की कल्पना को अमल में नहीं लाया जा सकता है. यही वजह है कि प्रधानमंत्री विपक्षी दलों से भी बात कर इस पर आमराय बनाने की कोशिश कर रहे हैं. ऐसे में सवाल ये उठता है कि आखिर कितना व्यावहारिक है एक देश एक चुनाव का नारा. विपक्ष को इस पर क्या आपत्ति है और क्या वाकई में चुनावी फिजूल खर्ची पर लगाम लगेगी. सवाल ये भी कि आखिर सरकार के लिए विपक्षी दलों की आपत्तियों का काम करके आमराय बनाना कितना मुश्किल होगा.