प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गुरुवार को पश्चिम बंगाल के एक दुर्गा पूजा पांडाल का वर्चुअल उद्घाटन किया. बंगाली संस्कृति की चर्चा में मोदी ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस, गुरुदेव, टैगोर, स्वामी विवेकानंद जैसे जाने-माने चेहरों के अलावा कुछ ऐसे गुमनाम पर्सनालिटी की भी चर्चा की जो बंगाल की माटी में पैदा हुए और अलग-अलग क्षेत्रों में समाज के लिए शानदार योगदान दिया. आइए हम इन्हें आज जानने की कोशिश करते हैं.

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प्रीतिलता वड्डेदार

बंगाल की प्रीतिलता को एक यूरोपीय क्लब के बाहर लगा बोर्ड काफी खटकता था, जिसमें लिखा था- ‘इंडियंस एंड डॉग्स आर नॉट एलाउड’. वो पढ़ाई के दौरान ही लीला नाग के संपर्क में आ गई थीं. ज़ी न्यूज़ की खबर के मुताबिक, लीला नाग ने महिला लेखकों की मैगजीन और महिलाओं को कॉम्बेट ट्रेनिंग देने के लिए एक संस्था शुरू की थी, ‘दीपाली सांघा’. प्रीति ने यहां ट्रेनिंग ली. फिर प्रीति ग्रेजुएशन के लिए कोलकाता आ गईं. 

चटगांव विद्रोह के नायक मास्टर सूर्यसेन ने उन्हें अपने दल में शामिल कर लिया. सूर्यसेन ने प्रीतिलता को हथियार चलाने की ट्रेनिंग दी, फिर टेलीफोन और टेलीग्राफ ऑफिसों में हमला बोलना शुरू कर दिया. प्रीति ने बढ़ चढ़कर इनमें हिस्सा लिया. इसके चलते प्रीति का नाम पुलिस की मोस्ट वांटेड लिस्ट में शामिल हो गया. 

3 सितंबर 1932 की शाम थी, केवल 21 साल की उम्र में प्रीतिलता को 10 से 12 साथियों के साथ मिशन हेड बनाकर भेजा गया. प्रीति खुद पुरुष वेश में थीं. बड़ी तेजी से हमला किया गया लेकिन पुलिस को खबर लग चुकी थी, प्रीति ने साथियों को सुरक्षित निकालकर खुद पोटैशियम सायनाइड खा लिया. बाद में कोलकाता यूनीवर्सिटी ने उनकी मौत के 80 साल बाद उनकी डिग्री दी.

मातंगिनी हाजरा

बंगाल की एक और महान शख्सियत थीं- मातंगिनी हाजरा. एक गरीब किसान की बेटी थी. बचपन में पिता ने एक 60 साल के बूढ़े से इनकी शादी कर दी, जब मातंगिनी 18 साल की हुईं तो पति मर गया. सौतेले बेटों ने आसरा नहीं दिया तो वो पश्चिम बंगाल के मिदनापुर के तामलुक में ही एक झोपड़ी बनाकर रहने लगीं. एक दिन 1932 में उनकी झोंपड़ी के बाहर से सविनय अवज्ञा आंदोलन का एक जुलूस निकला तो 62 साल की हाजरा भी शामिल हो गईं. उन्होंने नमक विरोधी कानून भी नमक बनाकर तोड़ा, गिरफ्तार हुईं. उन्हें कई किलोमीटर तक नंगे पैर चलते रहने की सजा मिली. उसके बाद उन्होंने चौकीदारी कर 'रोको' प्रदर्शन में हिस्सा लिया. इसमें फिर इन्हें 6 महीने की जेल की सजा मिली. लोग उन्हें ‘बूढ़ी गांधी’ के नाम से पुकारने लगे.

1942 में गांधीजी ने ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ का ऐलान कर दिया, और नारा दिया ‘करो या मरो’, मातंगिनी हाजरा ने मान लिया था कि अब आजादी का वक्त करीब आ गया है, उन्होंने तामलुक में भारत छोड़ो आंदोलन की कमान संभाल ली, जबकि उनकी उम्र 72 पार कर चुकी थी. इसी आंदोलन में वह पुलिस के हाथो शहीद हो गई थीं.

बीना दास

1986 में एक बंगाली महिला की लाश ऋषिकेश में सड़क किनारे मिलती है, शायद कई दिन पुरानी थी. लोग पुलिस को सूचना देते हैं, पुलिस लावारिस लाश का पता ठिकाना ढूंढने की कोशिश करती है. 1 महीने के बाद जब उन्हें पता चलता है कि वो महिला कौन थी, तो उनके होश उड़ जाते हैं. बंगाल की प्रमुख महिला क्रांतिकारी, जिसने कभी बंगाल के गर्वनर पर एक के बाद एक 5 फायर किए थे, जो 9 साल की कड़ी सजा काटके आई थी, जो नेताजी बोस के गुरु की बेटी थी, और नेताजी बोस उसके मेंटर थे. नाम था बीना दास. बीना दास की लाश को आजाद भारत में कोई पहचानने वाला नहीं था, जबकि उन्हें पद्मश्री तक मिल चुका था. 6 फरवरी 1932 को कोलकाता यूनिवर्सिटी के दीक्षांत समारोह में अंग्रेज गवर्नर जो वहां भाषण देने आया था, पर पांच गोलियां चला दी थीं. इसमें बीना को गिरफ्तार करके जेल भेज दिया था और उन्हें 9 साल की सजा हो गई. उसी साल बीना ने बीए किया था और उनको भी डिग्री मिलनी थी. 

बाघा जतिन

इनके बारे में कहा जाता है कि यतीन्द्र नाथ मुखर्जी उर्फ बाघा जतिन के एक साथी ने अगर गद्दारी नहीं की होती तो देश को न गांधीजी की जरूरत पड़ती और न बोस की. देश भी 32 साल पहले ही यानी 1915 में ही आजाद हो गया होता. उनकी मौत के बाद चले ट्रायल के दौरान ब्रिटिश प्रॉसीक्यूशन ऑफीसर ने कहा, “Were this man living, he might lead the world.” इस वाक्य से अंदाजा लगाया जा सकता है कि कितना खौफ होगा बाघा जतिन का उस वक्त. कोलकाता पुलिस के डिटेक्टिव डिपार्टमेंट के हेड और बंगाल के पुलिस कमिश्नर रहे चार्ल्स टेगार्ट ने अपने साथियों से कहा था कि ‘अगर बाघा जतिन अंग्रेज होते तो अंग्रेज लोग उनका स्टैच्यू लंदन में ट्राफलगर स्क्वायर पर नेलशन के बगल में लगवाते’ और ये चार्ल्स का ही बयान था कि जतिन की योजना अगर कामयाब हो जाती, तो वो आजाद भारत के राष्ट्रपिता होते. 

कलकत्ता सेंट्रल कॉलेज में पढ़ने के दौरान वो स्वामी विवेकानंद के पास जाने लगे, जिनसे उन्हें भरोसा मिला कि स्वस्थ फौलादी शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है. स्वामी विवेकानंद ने उन्हें अम्बू गुहा के देसी जिम में भेजा, ताकि वो कुश्ती के दांव पेंच सीख सकें. विवेकानंद के संपर्क में आकर उनके अंदर ब्रह्मचारी रहकर देश के लिए कुछ करने की इच्छा तेज हुई. लेकिन 1900 में ही अनुशीलन समिति की स्थापना हुई, उस वक्त क्रांतिकारियों का सबसे बड़ा संगठन. बाघा जतिन ने इसकी स्थापना में अहम भूमिका निभाई. 

1915 की गदर क्रांति में गदर क्रांतिकारियों और रासबिहारी बोस से हाथ मिलाने के बाद जतिन ने जर्मनी के राजा से संपर्क करके वहां से हथियारों से लदा एक पूरा शिप मंगवाया, लेकिन एक डबल एजेंट की वजह से सबको पता चल गया. यहां पुलिस के साथ मुठभेड़ में जतिन अपने साथियों को बचाते-बचाते शहीद हो गए.

काजी नजरुल इस्लाम

पीएम मोदी ने अपने शक्ति पूजा संबोधन में बंगाल के नायकों के बीच काजी नजरुल इस्लाम का भी नाम लिया. काजी ने पहले बेटे का नाम रखा कृष्णा मोहम्मद, अपने जिले आसनसोल को छोड़कर रहने के लिए जगह चुनी कृष्णा नगर, दूसरे बेटे का नाम रखा काजी सब्यसाची, ये नाम श्रीकृष्ण को इसलिए दिया गया था क्योंकि वो दाएं और बाएं दोनों हाथों से धनुष चला सकते थे, तीसरे बेटे का नाम रखा काजी अनिरुद्ध जो कृष्ण के नाती और बेटे प्रद्युम्न के बेटे थे. और चौथे बेटे का नाम रखा था अरिंदम खालिद जिसका अर्थ होता है शत्रुओं का नाश करने वाला. बांग्लादेश और भारत के पूर्वी राज्यों खासतौर पर पश्चिम बंगाल में ये कवि काफी लोकप्रिय रहे हैं. बांग्लादेश में तो वो राष्ट्रकवि माने जाते हैं.

पश्चिम बंगाल के आसनसोल में पैदा हुए नजरुल 17 साल की उम्र में ब्रिटिश इंडियन आर्मी में भर्ती हो गए थे. पहले विश्व युद्ध के समय इनको मेसोपोटामिया भेज दिया गया था. काजी के पिता स्थानीय मस्जिद के इमाम थे. पिता की जल्दी मौत होने के बाद वो उनकी जगह उस मस्जिद की देखभाल करने लग गए, मुअज्जिन बन गए. उन्होंने समाज के उपेक्षित तबकों जैसे वैश्याओं, गरीबों के लिए अलग से मार्मिक कविताएं लिखीं. जबकि 500 के करीब भजन आदि लिखे, जो ना केवल कृष्ण और राधा से जुड़े थे, बल्कि शिव, लक्ष्मी और पार्वती को लेकर भी लिखे गए थे.

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1930 में उनकी फिर एक किताब बैन हुई और फिर उन्हें जेल भेज दिया गया. एक साल बाद आए. बाद में वो फिल्मी दुनिया से भी जुड़े, एक बंगाली फिल्म ‘ध्रुव भक्त’ डायरेक्ट करके वो पहले बंगाली मुस्लिम डायरेक्टर बन गए. 1941 से वो बीमार पड़ना शुरू हो गए, कुछ मानसिक दिक्कतों के चलते उनके व्यवहार में अजीबोगरीब परिवर्तन आना शुरू हो गया, बोलने में दिक्कत आने लगी. 1952 में उन्हें रांची के मानसिक रोग चिकित्सालय में भर्ती करवाया गया. लेकिन कई कोशिशों के बाद भी वह ठीक नहीं हो पाए, तो कोलकाता वापस आ गए. 1962 में उनकी पत्नी की भी मौत हो गई. दो बेटों की मौत उनके बचपन में ही अलग-अलग बीमारी के चलते हो गई थी.

जब बांग्लादेश बना तो वहां की सरकार ने उन्हें बांग्लादेश ले जाने की इजाजत मांगी, भारत सरकार ने अनुमति दे दी. 1974 में उनका बेटा अनिरुद्ध भी नहीं रहा. 2 साल बाद उनकी भी मौत हो गई. ढाका यूनिवर्सिटी में उनको दफना दिया गया. बांग्लादेश ने तब 2 दिन का राष्ट्रीय शोक घोषित किया था और भारत की संसद में उनको मौन श्रद्धांजलि दी गई थी.