उत्‍तर प्रदेश की हाई-प्रोफाइल लोकसभा सीट मैनपुरी (Mainpuri Lok Sabha Election 2022) पर वोटों की गिनती शुरू हो चुकी है. मुलायम सिंह यादव के निधन के बाद खाली हुई इस सीट पर सभी की नजर टिकी हुई है क्‍योंकि ये सीट सपा का गढ़ कहलाती है. यहां वर्षों से मुलायम सिंह यादव का वर्चस्‍व कायम रहा है. इस वर्चस्‍व को तोड़ने के लिए बीजेपी ने हर बार जातीय समीकरणों के साथ उम्मीदवार उतारे, लेकिन कामयाब नहीं हो पाई.

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मुलायम सिंह के निधन के बाद समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) ने मैनपुरी सीट से डिंपल यादव (Dimple Yadav) को चुनाव मैदान में उतारा है, तो वहीं बीजेपी ने शिवपाल यादव के करीबी माने जाने वाले रघुराज शाक्‍य पर दांव खेला है. शुरुआती रुझानों में डिंपल यादव आगे चल रही हैं. रुझानों को देखकर लग रहा है कि बीजेपी के लिए इस बार भी मुलायम सिंह यादव (Mulayam Singh Yadav) का वर्चस्‍व तोड़ पाना आसान नहीं है. आइए जानते हैं यूपी की इस वीआईपी सीट का दिलचस्‍प इतिहास.

मुलायम का गढ़ बनने से पहले का इतिहास

1996 के बाद मैनपुरी लोकसभा सीट पर मुलायम परिवार का वर्चस्‍व कायम है, लेकिन इससे पहले भी मैनपुरी सीट काफी  उथल-पुथल करने वाली सीट रही है. आजादी के बाद 1952 में इस सीट पर पहली बार कांग्रेस ने जीत हासिल की थी, लेकिन दूसरे ही लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को यहां की जनता ने नकार दिया और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के बंशीधर डागर पर अपना भरोसा जताया. लेकिन इसके बाद फिर से कांग्रेस ने अपनी जीत हासिल की और 1971 तक लगातार यहां कब्‍जा बनाकर रखा. 1977 में इमरजेंसी के बाद लोगों में कांग्रेस को लेकर गुस्‍सा भरा था. इस कारण कांग्रेस को फिर से ये सीट गंवानी पड़ी. ये सीट जनता पार्टी के पास आयी लेकिन जनता पार्टी ये जीत ज्यादा समय तक बरकरार नहीं रख पाई. लिहाजा अगले ही साल फिर से उपचुनाव हुए और कांग्रेस ने वापसी कर ली.

1984 के बाद कभी कांग्रेस की वापसी नहीं हुई

2 साल बाद ही 1980 के चुनावों में मैनपुरी ने एक बार फिर कांग्रेस को नकार दिया. 1977 में भारतीय लोक दल के टिकट से जीत दर्ज करने वाले रघुनाथ सिंह वर्मा ने 1980 में जनता पार्टी सेक्युलर के टिकट पर चुनाव लड़ा और जीते. 1984 में फिर से कांग्रेस ने मैनपुरी सीट पर जीत हासिल कर ली. लेकिन कांग्रेस के लिए ये इस सीट पर जीत का आखिरी मौका था क्‍योंकि इसके बाद कभी दोबारा कांग्रेस मैनपुरी सीट नहीं जीत पाई. 

1996 से सपा का वर्चस्‍व कायम है मैनपुरी सीट पर 

4 अक्तूबर 1992 को नेताजी के नाम से मशहूर मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी का गठन किया और वर्ष 1996 का पहला लोकसभा चुनाव लड़ा. उसके बाद नेताजी ने ऐसा वर्चस्व बनाया कि आज तक कोई भी अन्‍य पार्टी इस सीट पर जीत दर्ज नहीं करा सकी.1996 के बाद मैनपुरी लोकसभा सीट के लिए 8 बार चुनाव हो चुके हैं, लेकिन हर बार जीत समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार की ही हुई है. जब भी चुनाव हुआ तो मुलायम सिंह यादव की कुछ जनसभाएं और परिवार के अन्य सदस्यों की दो-चार बार आमद ही जीत सुनिश्चित कर देती थी.  साल 2014 में भी जब पूरे देश में मोदी लहर थी, तब भी मैनपुरी सीट पर भगवा रंग नहीं चढ़ पाया. हालांकि, 2019 में बीएसपी से गठबंधन के बाद सपा की जीत का कुछ अंतर कम हुआ. 2014 में मुलायम सिंह यादव ने 3.5 लाख से ज्यादा वोट से जीत दर्ज की थी लेकिन 2019 के चुनाव में जीत का ये अंतर घटकर एक लाख से भी कम हो गया. लेकिन कोई अन्‍य पार्टी फिर भी अपना कब्‍जा जमाने में कामयाब नहीं हो सकी. 

मैनपुरी का जातीय समीकरण 

मैनपुरी सीट पर सपा के लगातार कायम होने के पीछे एक बड़ी वजह यहां का जातीय समीकरण भी माना जाता है. 17 लाख से ज्यादा वोटर्स वाली मैनपुरी सीट पर 35 फीसदी यादव हैं और इसके बाद शाक्‍य और राजपूत की हैं. फिर ब्राह्मण, लोधी, दलित और मुस्लिम वोटर्स हैं. मुलायम परिवार की जीत में यादव और शाक्य कम्‍युनिटी का बड़ा हाथ है. इन्‍हें सपा का पारंपरिक वोट बैंक माना जाता है. अगर पिछले आंकड़ों पर नजर डालें तो मैनपुरी सीट पर सपा को करीब 60-62 फीसदी तक वोट मिलते रहे हैं.

समय के साथ बढ़ता गया मुलायम परिवार का दबदबा

ऐसा नहीं है कि किसी अन्‍य पार्टी ने यहां जीत दर्ज कराने की कोशिश नहीं की, जातीय समीकरणों के साथ उम्मीदवार उतारने के बावजूद सपा के आगे कोई अन्‍य पार्टी कभी टिक नहीं पाई. समय के साथ मुलायम परिवार का दबदबा भी यहां बढ़ता चला गया और ये सीट मुलायम परिवार का गढ़ कहलाने लगी. इस बार नेता जी की बहू डिंपल यादव मैनपुरी सीट पर चुनाव लड़ रही हैं और फिलहाल 16 हजार से ज्‍यादा मतों से आगे चल रही हैं, जिसे देखते हुए लग रहा है कि मैनपुरी सीट पर मुलायम परिवार का वर्चस्‍व तोड़ पाना अभी भी आसान नहीं है.