ये तस्वीर आज के बदलते भारत की है, जहां महिलाएं अब पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रहीं हैं और शायद कहीं उससे आगे भी हैं. कामयाबी की जिस ऊंचाईं पर पहले सिर्फ मर्दों का राज था, अब महिलाएं भी पहुंच रही हैं. लेकिन जितना आदर्श ये सुनने में लगता है, उतना है नहीं...क्योंकि ये अधूरा सच है. ऑफिस के बाद जब बात घर की जिम्मेदारियों की आती है तब पूरा बोझ महिलाओं पर ही डाल दिया जाता है. मतलब घर का किचन आज भी उस मॉडर्न महिला का असली पता है, जो सुबह-सुबह बदलते समाज की पहचान लिए ऑफिस जाती है. उस वक्त पुरुष कंधे से कंधा मिलाकर नहीं चलता. तब पुरुष और महिलाओं की समानता की बात नहीं होती. जरा इन आंकड़ों पर नजर डालिए, कहानी खुद-ब-खुद समझ आ जाएगी.

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क्‍या कहते हैं आंकड़े

> महिलाएं रोजाना कम से कम 6 घंटे घर के काम में व्यस्त रहती हैं. 

> जबकि भारतीय पुरुष घर के काम के लिए सिर्फ 19 मिनट ही निकालते हैं

> हालांकि विश्व में पुरुषों का ये आंकड़ा काफी ज्यादा है. 

> ऑस्ट्रेलियाई पुरुष करीब 3 घंटे घर के काम को देते हैं

> अमेरिका में पुरुष का करीब ढाई घंटा घर के काम करने में बीतता है. 

> चीन और जापान में ये आंकड़ा थोड़ा कम है

> चीन में पुरुष करीब 1.5 घंटे घर का काम करते हैं

> वहीं जापान के पुरुष सिर्फ 11 मिनट घर के काम को देते हैं

घर में क्‍यों नहीं समानता

ऐसे में सवाल उठता है कि जब आप समानता की बात करते हैं तो घर की जिम्मेदारियों को नजरअंदाज क्यों किया जाता है. हम ये तो स्वीकार कर चुके हैं कि महिलाओं को घर से बाहर निकलना चाहिए, लेकिन पुरुष घर के काम में कब हाथ बंटाएंगे? दुनिया में पुरुष और महिलाओं के बीच घर की जिम्मेदारियों को लेकर बराबर तो नहीं लेकिन समझौते की हद तक बंटवारा हो चुका है, लेकिन भारत में नहीं.

एक और भेदभाव 

> देश की जनसंख्या में करीब 48.5% महिलाएं हैं.

> इसमें करीब 30% महिलाएं संगठित और गैर संगठित क्षेत्र में काम करती हैं.

> इसमें से भी सिर्फ 17% महिलाएं ही संगठित क्षेत्र में काम करती हैं.

> लेकिन विडंबना देखिए कि पुरुषों के मुकाबले महिलाओं को उसी काम के करीब 62% सैलरी ही मिलती है.

> यानी सैलरी के फ्रंट पर भी महिलाओं के साथ भेदभाव होता है...

क्‍या है आदर्श स्थिति

महिलाओं की ऐसी स्थिति के लिए कहीं न कहीं अभिभावक ही जिम्मेदार हैं. क्योंकि घर-घर में बेटियों के लिए घर का काम जानना जरूरी है. लेकिन लड़कों के लिए ऐसी कोई बाध्यता नहीं है. अगर सच में महिलाओं और पुरुषों को कंधा से कंधा मिलाकर चलना है, एक ऐसा समाज बनाना है जहां लिंग के आधार पर दकियानूसी और पुराण काल से चली आ रही रीतियों को संस्कार का ठप्पा लगाकर पालन पोषण ना किया जाए, तो नि:संदेह हम एक बेहतर समाज बना पाएंगे.