El Nino, Monsoon and Indian Economy: बड़ी बेसब्री से मानसून का इंतजार है. बारिश की बूंदे गिरे तो गर्मी से राहत मिले. जून से सितंबर का यह मौसम सिर्फ गर्मी से ही छुटकारा नहीं दिलाता. बल्कि यह खेती-किसानी और सब लोगों की कमाई-धमाई के लिए भी खास है. इस साल मानसून की इस जर्नी में एक ट्विस्ट है, जिसे एक 'छोटा बच्‍चा' लेकर आ सकता है. दिक्‍कत यह है कि इस बच्‍चे की नासमझी झमाझम बारिश की उम्‍मीदों, किसानों की मुस्‍कराहट और इकोनॉमी की रफ्तार तीनों पर ब्रेक लगा सकती है. अगर कहा जाए कि हजारों मील दूर प्रशांत महासागर में बढ़ती गर्मी हमारी बारिश को सोख सकती है, तो शायद ही आप यकीन करें. लेकिन, इस बात में टके की सच्‍चाई है. आखिर मानसून और 'छोटे बच्‍चे' की नासमझी का कनेक्‍शन क्‍या है? प्रशांत महासागर में बढ़ती गर्मी से भारत में बारिश को क्‍यों पसीना आता है? और, जब ये सब कुछ होता है तो भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था कैसे सुस्‍त पड़ने लगती है. जानते हैं सिलसिलेवार... 

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मानसून को लेकर 2 वेदर एजेंसियों के पूर्वानुमान हाल ही में आए हैं. सरकारी वेदर एजेंसी भारत मौसम विभाग (IMD) ने अल-नीनो के बावजूद इस साल मानसून में सामान्य बारिश होने की संभावना जताई है. IMD का पूर्वानुमान है कि इस साल दक्षिण-पश्चिम मानसून (जून-सितंबर) के दौरान 96 फीसदी बारिश हो सकती है. प्राइवेट वेदर एजेंसी स्‍काईमेट ने मानसून सामान्‍य से कम, 94 फीसदी रहने की संभावना जताई है. एक बात तो सौ फीसदी सही है कि अगर मानसून कमजोर रहता है, तो इसका भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था पर काफी गहरा असर होगा.

ये है मानसून मेरी जान

सीधे समझें, भारत में मानसून उन हवाओं को कहते हैं जिनसे बारिश होती है. भारत में दो तरह के मानसून ग्रीष्‍मकालीन (समर) और शीतकालीन (विंटर) होते हैं. ग्रीष्‍मकालीन मानसून को ही दक्षिण-पश्चिम मानसून (जून-सितंबर) कहते हैं. दूसरा शीतकालीन मानसून जिसे उत्‍तर-पूर्वी मानसून भी कहते हैं. उत्‍तर-पूर्व हवाएं अक्‍टूबर से मई के मध्‍य चलती हैं.

भारत के लिए दक्षिण-पश्चिम मानसून बेहद अहम है क्‍योंकि ज्‍यादातर खेती-किसानी या एग्री गतिविधियां इसी पर निर्भर हैं. इसलिए आमतौर पर हम दक्षिण-पश्चिम मानसून को ही मानसून के रूप में देखते हैं. अरब सागर की ओर से भारत के दक्षिण-पश्चिम तट पर आने वाली मानसूनी हवाएं भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, म्‍यांमार, वियतनाम समेत कई दक्षिण पूर्व एशिया के कई देशों में बारिश कराती हैं. मानसून शब्द मौसम के लिए इस्तेमाल होने वाले अरबी शब्द ‘मौसिम’ से निकला है.

कुछ सालों की रवानी

मानसून के पैटर्न को बीते 4-5 साल के साइकिल में समझते हैं. 2019 से मानसून को देखें, तो लगातार 4 सालों तक भारत में मानसून के दौरान सामान्य और सामान्य से ज्‍यादा बारिश दर्ज की गई. IMD के आंकड़ों के मुताबिक, 2019 में मानसून के मौसम में 971.8 मिमी, 2020 में 961.4 मिमी, 2021 में 874.5 मिमी और 2022 में 924.8 मिमी बारिश हुई. इससे पहले, 2018 के मानसून में 804.1 मिमी, 2017 में 845.9 मिमी, 2016 में 864.4 मिमी और 2015 में 765.8 मिमी बारिश दर्ज की गई थी.

बारिश-GDP: अनलिमिटेड कनेक्‍शन

भारत में ज्‍यादातर खेती मानसून की बारिश पर निर्भर है. कृषि क्षेत्र का करीब 52 फीसदी हिस्‍सा बारिश पर ही टिका है. यह देश के कुल फूड प्रोडक्‍शन का करीब 40 फीसदी है. जो देश की फूड सिक्‍युरिटी और इकोनॉमिक स्‍टैबिलिटी के लिए काफी अहम है. खेती-किसानी भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था की बैक बोन (रीढ़ की हड्डी) है. ऐसा इसलिए क्‍योंकि भारत की करीब 60 फीसदी आबादी एग्रीकल्‍चर से जुड़ी है. जिनका भारत के सकल घरेलू उत्‍पाद (GDP) में करीब 20 फीसदी योगदान है. भारतीय किसानों के नजरिए से देखें, तो उनके लिए मानसून की बारिश काफी कीमती है.

नासमझ 'छोटा बच्‍चा' है अल-नीनो

अल-नीनो एक स्पेनिश शब्द है. इसका अर्थ 'द लिटिल ब्वॉय' यानी छोटा बच्चा होता है. अब सीधे शब्‍दों में समझें, अल-नीनो एक मौसमी प्रक्रिया है जिसमें दक्षिण अमेरिका महाद्वीप के करीब प्रशांत महासागर के पूर्वी और मध्य हिस्से में पानी का तापमान ज्‍यादा हो जाता है. इसकी वजह से वायुमंडल में होने वाले बदलाव का असर भारतीय उपमहाद्वीप के दक्षिण-पश्चिम मानसून पर पड़ता है. सामान्य तौर पर दक्षिण अमेरिका की तरफ से ट्रेड विंड पश्चिम दिशा यानी एशिया की तरफ बहती हैं. अल-नीनो की वजह से प्रशांत महासागर का पानी गर्म होने लगता और ट्रेड विंड की नमी में कमी होने लगती है और उसका असर भारत में कमजोर मानसून के रूप में दिखाई देता है.

प्रशांत महासागर: इतनी 'गर्मी' क्‍यों है भाई

अल-नीनो और मानसून को समझाते हुए प्राइवेट वेदर एजेंसी स्‍काईमेट के वाइस प्रेसिडेंट (मेटियोरोलॉजी एंड क्‍लाइमेंट चेंज) महेश पालावत कहते हैं, मौसमी घटनाक्रम में पूर्वी प्रशांत महासागर की सतह का तापमान गर्म होने लगता है. अगर यह (+)(-) 0.5 प्‍वाइंट होता है, तो इसे न्‍यू्ट्रल कहते हैं. अगर तापमान इससे भी ज्‍यादा (तीन महीने का औसत लिया जाता है) बढ़ने लगता है, तो यह अल-नीनो होता है. एक ओर दक्षिण अमेरिका, पेरू में तापमान बढ़ जाता है, इससे  वहां बादल ज्‍यादा बनेंगे और बारिश ज्‍यादा होगी. उसके मुकाबले पश्चिमी प्रशांत महासागर में समुद्री सतह का तापमान अपेक्षाकृत ठंडे हो जाते हैं. इससे बादल कम बनते हैं और बारिश कम होती है. इसलिए साउथ ईस्‍ट एशिया में भारत, पाकिस्‍तान, वियतनाम, म्‍यांमार, श्रीलंगा वगैरह देशों पर विपरीत असर होता है और यहां बारिश कम होती है.

महेश पालावत कहते हैं, अल-नीनो का भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था पर बड़ा असर देखने को मिल सकता है. क्‍योंकि अगर मानसून कमजोर होता है, तो एग्री प्रोडक्‍शन, बुवाई पर सीधा असर होगा. जिन इलाकों में सिंचाई की सुविधा नहीं है, वहां दिक्‍कत आएगी. हमने (स्‍माईमेट) ने जो इस साल मानसून का अनुमान लगाया है वह लॉन्‍ग पीरियड एवरेज (LPA) का 94 फीसदी है. यानी, 1 जून से 30 सितंबर तक जितनी बारिश (668 मिमी) होती है, उसका 94 फीसदी बारिश होगी. मौसम विभाग (IMD) ने 96 फीसदी बताया है. 96-104 फीसदी यह सामान्‍य मानसून की कैटेगरी में आता है. IMD ने सबसे निचला आकंड़ा दिया है, जिससे कि नॉर्मल मानसून कहा जाए. स्‍काईमेट का सामान्‍य से कम का अनुमान है. क्‍योंकि जब अल-नीनो होता है, तो बारिश कमजोर होती है, इसलिए हमने सामान्‍य से कम मानसून का अनुमान बताया है. आमतौर पर देखा जाए, तो अल-नीनो हर 3 साल में देखने को मिलता है और 2 साल तक बना रह सकता है. यानी, अगले साल भी इसका असर देखने को मिल सकता है. 

पालावत का कहना है, मानसून के इस मौसमी चक्र में एक अहम बात पश्चिमी हिंद महासागर और पूर्वी हिंद महासागर के तापमान में अंतर को लेकर भी है. जिसे इंडियन ओसन डाईपोल (IOD) कहते हैं. अगर IOD ज्‍यादा पॉजिटव होता है, तो यह अल-नीनो के असर को कम कर देता है. 2019 में ऐसा देखने को मिला था. लेकिन, इस बार ऐसा कुछ अभी तक दिखाई नहीं दे रहा है. जुलाई-अगस्‍त में पॉजिटिव है, लेकिन कितना पॉजिटिव है यह देखने वाली बात है. बता दें, IOD पॉजिटिव से मतलब यह है कि पश्चिमी हिंद महासागर की सतह का तापमान पूर्वी हिंद महासागर से ज्‍यादा होता है. इसके विपरीत होता है, तो इसे IOD निगेटिव कहते हैं.

अल-नीनो ने खाई दुनिया की भी कमाई

अल-नीनो को लेकर अब तक हमने भारत और भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था के संबंध के बारे में बात की. लेकिन, इसके ग्‍लोबल असर भी काफी जानने लायक हैं. हाल में जारी एक स्‍टडी के मुताबिक, अल-नीनो वार्मिंग से दुनियाभर के मौसम में बदलाव हो रहा है. जिससे कि अरबों डॉलर का नुकसान हो रहा. 

अल-नीनो भूमध्यरेखीय प्रशांत के कुछ हिस्सों का एक अस्थायी और नेचुरल वार्मिंग है, जो दुनिया के विभिन्न हिस्सों में सूखे, बाढ़ और गर्मी की थपेड़ों का कारण बनता है. यह मानव-जनित वार्मिंग को और बूस्‍ट देता है. यानी, अल-नीनो ग्‍लोबल इकोनॉमी के लिए भी बड़ी समस्‍या है.

जर्नल 'साइंस' की ताजा स्‍टडी के मुताबिक, अल-नीनो से ग्‍लोबल इकोनॉमी को 3.4 ट्रिलियन डॉलर का झटका लग सकता है. इसके चलते 1997-1998 में सबसे ज्‍यादा 5.7 ट्रिलियन डॉलर का नुकसान ग्‍लोबल इनकम को हुआ था. वर्ल्‍ड बैंक का अनुमान है कि 1997-1998 में अल-नीनों के चलते सरकारों को 45 अरब डॉलर का नुकसान हुआ था.

मेघा अटकाएगी GDP की गाड़ी!

जाने-माने अर्थशास्‍त्री अभीक बरूआ कहते हैं, अल-नीनो जैसे हालात में भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था पर दो तरह का असर देखने को मिल सकता है. पहला असर महंगाई के रूप में दिखाई देगा. मानसून कमजोर रहता है, तो एग्रीकल्‍चर प्रोडक्‍ट्स के दाम बढ़ जाते हैं. अभी हम जो आंकड़े लेकर चल रहे हैं, उसमें यह है कि 5 से 5.50 फीसदी के बीच महगाई दर रहेगी. अल-नीनो के चलते मानसून कमजोर पड़ता है, तो महंगाई दर के इन आंकड़ों में आगे संसोधन करना पड़ सकता है. यानी, महंगाई दर के लक्ष्‍य में इजाफा हो सकता है. वहीं, सप्‍लाई को सुनिश्चित करने के लिए दाल, खाद्य तेल वगैरह कुछ प्रोडक्‍ट्स आयात करने पड़ सकते हैं. इससे ट्रेड बैलेंस, करंट अकाउंट डेफिसिट में भी कुछ असर पड़ सकता है. लेकिन, शुरुआती असर महंगाई दर पर ही होगा. 

अभीक बरूआ कहते हैं, दूसरा असर किसानों की आय पर देखने को मिल सकता है. कमजोर मानसून से डिमांड में कमी आ सकती है. कमजोर मानसून के दौर में किसानों को राहत देने के लिए अमूमन राज्‍य सरकारें MSP (मिनिमम सपोर्ट प्राइस) पर कुछ सपोर्ट प्राइस बढ़ा सकती हैं. लेकिन जो छोटे किसान हैं, जिनके पास MSP रूट उतना मजबूत नहीं है, उनके लिए प्रोडक्‍शन में दिक्‍कत होगी और कीमतें बढ़ सकती है. लेकिन उनको जो दाम मिलेगा वो मार्केट के हिसाब से नहीं मिलेगा. इस तरह उनकी इनकम  घट सकती है.

इसके अलावा, कमजोर मानूसन के चलते खेती-किसानी की गतिविधियां कम रहती हैं, तो एग्रीकल्‍चर वर्कर्स को मनरेगा में जाना पड़ सकता है या बेरोजगारी में इजाफा हो सकता है. इस तरह, एग्रीकल्‍चर और रूरल इकोनॉमी में डिमांड की दिक्‍कत आ सकती है. एक स्थिति ऐसी भी होगी जब महंगाई दर भी बढ़ सकती और डिमांड भी घट सकती है. यह काफी चुनौतीपूर्ण हालात होंगे. क्‍योंकि, एक बड़ी दिक्‍कत सप्‍लाई साइड से आ रही है. ऐसे में हमारा जो बेसिक इकोनॉमी कॉन्‍सेप्‍ट है कि डिमांड घटेगा तो महंगाई भी घटनी चाहिए. ग्रोथ और महंगाई अलग-अलग दिशा में चलनी चाहिए. ऐसा नहीं होगा क्‍योंकि यह 'टिपिकल सप्‍लाई शॉक' है.

अभीक बरूआ का कहना है, मानसून  के कमजोर होने का असर यह होगा कि डिमांड भी घटेगी और महंगाई भी बढ़ेगी. इस तरह के हालात में रिजर्व बैंक को कुछ सख्‍त कदम उठाने पड़ सकते हैं. जैसेकि ब्‍याज दरों में इजाफा हो सकता है. लिक्विडिटी सख्‍त करने के कदम केंद्रीय बैंक उठा सकता है. कहने का मतलब कि मॉनिटरी पॉलिसी में थोड़ी सख्‍ती आ सकती है. वहीं, अगर अल-नीनो नहीं होता, तो जितनी ब्‍याज दरें घट सकती थीं, वो अब नहीं घटेंगी. अभी अलनीनो का अनुमान है  लेकिन इंडियन ओसन डाईपोल जैसे भी फैक्‍टर काम करते हैं. इसलिए अल-नीनो का असर कितना होगा यह देखना होगा. 

उनका कहना है, देश की करीब 60 फीसदी आबादी रूरल इकोनॉमी पर निर्भर है. यहां रूरल इकोनॉमी और एग्रीकल्‍चर इकोनॉमी में थोड़ा अंतर है. रूरल इकोनॉमी में खेती-किसानी के अलावा कई अन्‍य गतिविधियां भी शामिल रहती हैं. लेकिन, वो एग्रीकल्‍चर इकोनॉमी से जुड़े होते हैं. इसलिए पूरा रूरल इकोनॉमी पर असर आ सकता है. अगर एग्रीकल्‍चर के साथ बाकी गतिविधियों (हेल्‍थ, सर्विसेज वगैरह) को जोड़ें, तो यह काफी बड़ा आंकड़ा हो जाएगा. इससे ग्रोथ रेट पर फर्क आ सकता है.

कमजोर मानूसन का सीधा असर एग्री प्रोडक्‍ट्स, सीड्स, FMCG सेक्‍टर पर है. आमतौर पर रूरल सेक्‍टर में सबसे ज्‍यादा डिमांड टू-व्‍हीलर्स की आती है, वो प्रभावित हो सकती है. कारों के कुछ चुनिंदा मॉडल्‍स पर असर हो सकता है. ट्रैक्‍टर सेल्‍स पर भी असर देखने को मिल सकता है. इसके अलावा, कंज्‍यूमर ड्यूरेबल्‍स (व्‍हाइट गुड्स प्रोडक्‍ट्स) जैसेकि फ्रीज, टीवी की सेल्‍स भी प्रभावित हो सकती है. यानी, सीधे तौर पर असर की बात करें तो स्‍माल टिकट साइज आइटम सीधे प्रभावित होंगे. दूसरा, बिग टिकट आइटम में टू-व्‍हीलर्स, कुछ तरह के व्‍हाइट गुड्स, कुछ कार मॉडल की सेल्‍स प्रभावित होगी. 

 

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