दशहरा बुराई पर अच्छाई की जीत का संदेश देता है. यह एक उदाहरण है कि बुराई कितनी भी बलवान क्यों न हो जाए, अंत में जीत अच्छाई की होती है. त्रेता युग में प्रभु श्रीराम ने दस सिर वाले रावण का वध किया था, क्योंकि रावण सीता का हरण करने की भूल कर बैठा था. आज यानी कलयुग में दस सिर वाले रावण तो नहीं हैं, लेकिन एक ही सिर में दस दिमागों की घृणित, कुत्सित और कुंठित मानसिकता देखने को ज़रूर मिल जाती है. आज असंख्य रावण हमारे इर्द-गिर्द हैं और उनका मुकाबला करने के लिए राम जैसे प्रतापी राजा भी नहीं हैं.

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कलयुग के असली रावण

वैसे तो कहीं न कहीं हर व्यक्ति में रावण छिपा है, जो कभी क्रोध, तो कभी प्रतिशोध के रूप में सामने आता है, लेकिन महिलाओं को लेकर कुंठित और कुत्सित सोच रखने वाले कलयुग के असली रावण हैं. 

दशहरे से पहले हम नवरात्रि के रूप में नारी शक्ति की उपासना करते हैं और दशहरे पर बुराई का अंत, मगर सदियों से चली आ रही यह परंपरा भी हमारे अंदर के रावण का दहन नहीं कर पाई है. 

आज रावण को जानने के लिए सात समुंदर पार जाने की जरूरत नहीं है. नजरों को बस कुछ क्षण के लिए सड़क पर टिकाने की देर है, न जाने कितने रावण नजर आ जाएंगे. जिनकी निगाहें महिलाओं के सीने पर हर रोज नश्तर सा वार करती हैं. 

रामायण काल का रावण सीता की सुंदरता पर मोहित जरूर हुआ था, लेकिन उसने कभी वासना के विचारों को पनपने नहीं दिया. उसने कभी स्त्री को कामोत्तेजना की पूर्ति के साधन के रूप में नहीं देखा, पर आज स्थिति एकदम उलट है.  

वैचारिक रावण के वध के लिए राम बनना होगा

आज सेक्स नारी का पर्यावाची बन गया है. सड़क पर चल रही युवती की ड्रेस से यदि ब्रा का स्ट्रेप भी बाहर आ जाए, तो हमारी कामोत्तेजना इस कदर भड़क जाती है जैसे बारूद के ढेर में किसी ने चिंगारी दिखा दी हो. ख्यालों के ब्रश को वासना की स्याही में डुबोकर हम वैचारिक शीलभंग करने में जुट जाते हैं.

देश से हर कोने से बच्चियों से लेकर प्रौढ़ और वृद्ध महिलाओं से जोर-जबर्दस्ती की खबरें लगातार आ रही है, उस वक्त ऐसा करने वालों को न तो नारी में मां दुर्गा नजर आती हैं और न लंकापति रावण का हाल. हम वासना में अंधे हो जाते हैं और इस दृष्टि लोप को परमानन्द की संज्ञा दे बैठते हैं. इसलिए कलयुग का रावण द्वापर युग के रावण से ज्यादा शक्तिशाली और खतरनाक है. 

सही मायनों में असली दशहरा

जब तक इस रावण का दहन नहीं होता, तब तक दशहरे के उल्लास का कोई अर्थ नहीं. महज पुतले को आग लगा देने से बुराई का अंत नहीं होगा, हमें वैचारिक रावण के वध के लिए राम बनना होगा. हमें स्त्री के प्रति अपने मन में वही आदर और सम्मान जागृत करना होगा, जो थोड़ी देर के लिए ही सही मगर मां दुर्गा के चरणों में शीश झुकाते समय महसूस होता है. 

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जिस दिन सड़क पर चल रही महिला को देखकर वासना कुलांचे मारना बंद कर दे, समझ लीजियेगा आपने अपने अंदर के रावण का दहन कर दिया है और वही सही मायनों में असली दशहरा होगा. बुराई पर अच्छाई की जीत.

(लेखक: अभिषेक मेहरोत्रा Zee News के Editor (Digital) हैं.)