बैंकिंग आज के वक्त में हमारी लाइफस्टाइल का हिस्सा है. आप भी जरूर किसी न किसी बैंक के कस्टमर होंगे और अपनी बैंकिंग प्रोफाइल मेंटेन करते होंगे. ऐसा माना जा सकता है कि आपको पता होगा कि बैंक अपने कस्टमर्स को जहां कई सुविधाएं देते हैं, वहीं इसके लिए वो कई नियम-कानून भी रखते हैं. ग्राहकों को अपना अकाउंट मेंटेन करने के लिए इन शर्तों को पूरा करना होता है. इनमें ही एक शर्त है- सेविंग्स अकाउंट में एवरेज मिनिमम बैलेंस की लिमिट मेंटेन करना. 

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लगभग सभी बैंक सेविंग्स अकाउंट खुलवा रहे अपने ग्राहकों के सामने यह सबसे बेसिक कंडीशन रखते हैं कि अगर वो अकाउंट खुलवा रहे हैं तो उन्हें बैंक की ओर से तय की गई एक मिनिमम लिमिट तक अमाउंट हमेशा अपने अकाउंट में मेंटेन करना ही होगा. अगर उनके अकाउंट में इससे कम पैसे हुए तो बैंक उनपर जुर्माना लगा सकता है.

अलग-अलग बैंकों का अपना-अपना एवरेज मिनिमम बैलेंस होता है. कुछ बैंकों की लिमिट एक जैसी होती है कुछ की अलग. जैसे कि सरकारी बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के  ग्रामीण क्षेत्रों के लिए यह लिमिट 1,000 रुपये, सेमी-अर्बन इलाकों के ग्राहकों के लिए 2,000 रुपये और मेट्रो सिटी में यह लिमिट 3,000 रुपये रखता है. HDFC और ICICI बैंक की मिनिमम बैलेंस लिमिट बड़े शहरों में 10,000 रुपये तक जाती है.

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लेकिन बैंक रखते क्यों हैं मिनिमम बैलेंस का रूल?

सीधे-सीधे शब्दों में कहें तो बैंक बिजनेस हैं और आपसे उनका लागत निकलती है. वो चाहते हैं कि उनके पास पैसे हो, लिक्विडिटी बनी रहे. इससे वो और पैसा उधार दे सकते हैं. यानी कि उनके पास जितना पैसा डिपॉजिट होगा, वो उतना उधार दे सकते हैं. 

बैंकों को लोन वगैरह देने के लिए एक निश्चित अमाउंट तक का डिपॉजिट रखना होता और रेगुलेशन के मुताबिक अपना फाइनेंशियल रेशियो मेंटेन करना होता है, जिसकी लागत वो कस्टमर्स के डिपॉजिट और उनपर लगाए गए पेनाल्टी से भी निकालते हैं.

इसके अलावा आप जो पैसे जमा रखते हैं, और मिनिमम बैलेंस मेंटेन न होने पर जो पेनाल्टी भरते हैं, वो बैंक के मेंटेनेंस और ऑपरेशन में जाता है. जैसा कि हमने कहा कि बैंक एक बिजनेस है और उन्हें अपना लागत, खर्च, मेंटेनेंस सबकुछ कैश फ्लो से मेंटेन करना होता है. इस बैलेंस से वो अपने ब्रांच मैनेज करते हैं, अकाउंट मेंटेन करते हैं, कस्टमर सर्विस का खर्च उठाते हैं, वगैरह-वगैरह. 

ऐसा नहीं है कि बैंक अपने पूरे ऑपरेशन को लेकर आपके डिपॉजिट और पेनाल्टी पर ही डिपेंड रहते हैं, इसके लिए वो आरबीआई से भी एक निश्चित ब्याज दर पर पैसे लेते हैं, यह एक और कारण है कि आरबीआई बैंकों के खर्चों और उनके कामकाज में बैलेंस पर नजर रखता है. 

बैंकों की लेंडिंग एक्टिविटी और ओवरऑल प्रॉफिटेबिलिटी के लिए मिनिमम बैलेंस मेंटेन करना एक रेगुलेटरी रिक्वायरमेंट है, हालांकि, सर्विसेज़ "कस्टमर फर्स्ट" हों, इसे लेकर रेगुलेटरी बॉडीज़ बैंकों को हमेशा निर्देश देती रहती हैं.