बैंक को सर्वाइव करने के लिए एक पर्याप्त कैपिटल की जरुरत होती है. इसे आम तौर पर "पूंजी पर्याप्तता अनुपात" (Capital Adequacy Ratio) के रूप में मापा जाता है. इस पर्याप्त कैपिटल को दुनिया के केंद्रीय बैंकिंग संस्थान तय करते हैं. जिसे बैंक को मेन्टेन रखना होता है. पूंजी पर्याप्तता अनुपात (Capital Adequacy Ratio) बैंकों की सॉल्वेंसी और अनचाहे रिस्क से उनकी सुरक्षा के लिए जरुरी है. इनमें लिक्विडिटी रिस्क के साथ-साथ क्रेडिट रिस्क भी कारण हो सकता है. बैंकों की सॉल्वेंसी को केवल बैंकिंग इंडस्ट्री के लिए नहीं छोड़ा जा सकता. ऐसा इसलिए क्योंकि बैंकों के अकाउंट में पूरी इकॅानोमी की सेविंग होती है. इसलिए, अगर बैंकिंग प्रणाली दिवालिया हो जाती है, तो पूरी अर्थव्यवस्था कुछ ही समय में कॅालेप्स हो सकती है. साथ ही, अगर आम लोगों की सेविंग खत्म हो जाती है. तो सरकार को बीच में आना होगा और जमा बीमा का भुगतान करना होगा. इसमें सरकार सीधे तरह से शामिल होती है. इसके लिए एक रेगुलेटरी बॅाडी बनाई गई है जो कैपिटल रेश्यो के बनने से लेकर लागू होने तक में शामिल रहती है.

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कैसे मापा जाता है

Capital Adequacy Ratio= (टियर I + टीयर II + टीयर III (कैपिटल फंड) / जोखिम भारित एसेट्स (RWA) )

जोखिम भारित एसेट्स (Risk weighted assets) क्रेडिट रिस्क, मार्केट रिस्क और ऑपरेशनल रिस्क को ध्यान में रखती हैं. रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (RBI) के पैरामीटर्स के अनुसार,भारत के कर्मशियल बैंकों को 9% की CAR बनाए रखना जरुरी है. जबकि पब्लिक सेक्टर के बैंकों को 12% की CAR बनाए रखने पर जोर दिया जाता है.

क्या हैं इसकी इंपोर्टेंस

क्रेडिट क्रिएशन को लिमिट करना

इसकी जरुरत बैंकिंग संस्थान जो अपनी धनराशि बनाते हैं उसको सीमित करने में पड़ती है. पूंजी पर्याप्तता अनुपात (Capital Adequacy Ratio) से ये निश्चित करा जाता है कि अगर बैंक लोन दे रहा है तो वो कुछ अमाउंट को अलग रखें. ऐसा इसलिए किया जाता है जिससे अगर लोन खराब होता है तो इन फंड से लॅास को कवर किया जा सके. इसलिए ये प्रोविजन लोन देने के लिए डिपॅाजिट अमाउंट को लिमिट कर देते हैं. Capital Adequacy Ratio में बदलाव का इकॅानमी पर प्रभाव पड़ता है.

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क्रेडिट एक्सपॅाजर

किसी बैंक के क्रेडिट एक्सपोजर के आधार पर  Capital Adequacy Ratio को निर्धारित किया जाता है. क्रेडिट एक्सपोजर लोन पर दी गई राशि से अलग है. क्योंकि भले ही उन्होंने वास्तव में किसी को कोई पैसा कर्ज पर नहीं दिया हो, लेकिन बैंकों के पास क्रेडिट एक्सपोजर तब ही हो सकता है अगर वो डेरिवेटिव प्रॅाडक्ट को रखते हैं. इसलिए क्रेडिट एक्सपोजर, Capital Adequacy Ratio को तैयार करने में बहुत ज्यादा जरुरी होता है. बैंको को दो तरह के क्रेडिट एक्सपोजर से निपटना होता है. पहला है बैलेंस शीट एक्सपोजर और दूसरा ऑफ बैलेंस शीट एक्सपोजर होता है.